राजस्थान के टौंक ज़िले के सोड़ा गांव में एक पेड़ के नीचे चौपाल सजी है। गांव के करीब 70-80 लोग बैठकर राशन के मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। किसी ने बैठक में मुद्दा उठाया था कि दुकान खुलने और राशन के आने-बंटने का समय पता ही नहीं चलता। हालांकि इस बारे में सरकारी नियम भी हैं लेकिन उनकी न तो जानकारी है और शायद न ही ज़रूरत। आरोप लगाने वाले को तो सिर्फ इतनी जानकारी चाहिए कि राशन की दुकान में अगले महीने राशन कब मिलेगा। राशन दुकानदार खुद बैठक में नहीं है लेकिन उसके चाचा उसका प्रतिनिधि कर रहे हैं। ग्राम सभा में सबके सामने मुद्दा उठाए जाने से वे खफा हो जाते है और ज़ोर ज़ोर से बोलने लगते हैं। लेकिन उनकी दबंगई काम नहीं आती क्योंकि गांव के ज्यादातर लोग आरोपी के साथ खुलकर नहीं बोल रहे थे तब भी थे तो उसी के साथ। बहस बढ़ती है तो कई लोग बीच बचाव करते हैं कि भई बन्दे ने सिर्फ पूछा है आपका नाम लेकर कोई आरोप थोड़े ही लगाया है। तभी गांव की सरपंच इसका समाधान सुझाती है कि राशन दुकान के सामने एक बोर्ड लगा दिया जाए और उस पर दुकान खुलने का वास्तविक दिन, समय और राशन मिलने का भी वास्तविक दिन व समय लिख दिया जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बोर्ड पर लिखे हुए दिन - समय पर लोग आएं तो उन्हें राशन मिले। सारी सभा एकदम इससे सहमत होती है और हाथ उठाकर इसे मंज़ूर करती है। राशन दुकानदार के प्रतिनिधि भी इससे सहमत हो जाते हैं। गांव वालों को भरोसा है कि चाचा ने ग्राम सभा में वादा किया है तो अब ये काम ज़रूर हो जाएगा।
सोड़ा गांव में अब ऐसी बैठकें अब हर महीने हो रही हैं। गांव की नवनियुक्त नौजवान सरपंच छवि राजावत जीस-टीशर्ट पहने इन बैठकों को संचालित करती हैं। एमबीए करने के बाद सरपंच बनी लड़की की कहानी राष्ट्रीय मीडिया में खूब छायी रही थी। लेकिन छवि की उम्र और अनुभव गांव से कहीं छोटे हैं। गांव की राजनीति में एमबीए की डिग्री लेते वक्त पढ़ाई गई बातें भी कुछ खास काम नहीं आतीं। लेकिन छवि ने तीन महीने में तीन ग्राम सभा बैठकें बुलाकर इसका तोड़ निकाल लिया है। गांव में ही खेती बाड़ी कर रहे के ही एक नौजवान जसवन्त सोनी कहते हैं कि जब ये पढ़ी लिखी लड़की गांव की सरपंच बनी तो हमें लगा था कि ये तो ज्यादा समय अपने जयपुर के घर में रहेगी। गांव का क्या विकास करेगी। लेकिन जब गांव के बीच बाज़ार में ग्राम सभा की खुली बैठक बुलाई, और उस बैठक में लोगों से पुछा कि गांव के विकास की शुरुआत कहां से करें.... तो हमें लगा कि अब गांव सुधरेगा।
ऐसा नहीं है कि सब कुछ इतना आसान है। लोग बैठकें के आदि नहीं है छवि बताई हैं `पहली बैठक में आए तो उन्हें लगा कि भाषण सुनने जा रहे हैं। लेकिन जब मैं चुप बैठी और हरेक आदमी से बोलने को कहा तो पहले तो सब हिचके लेकिन बाद में तो सब खुलकर बोले´ ग्राम सभा बैठकें में सबने गांव को लेकर अपना अपना सपना साझा किया है। तीन महीने का समय कुछ खास नहीं है लेकिन इससे गांव में पंचायत की प्राथमिकताएं तय हो गई हैं। सबसे पहले लक्ष्य रखा गया है कि गांव के 150 बीघे के तालाब के आधे हिस्से की खुदाई। वर्ष से इस तालाब की खुदाई नहीं हुई है और ये फुटबाल का सूखा मैदान लगता है। अरसे से जमी काली मिट्टी की खुदाई नरेगा के तहत कराना आसान नहीं है। वह भी तब जब बारिश आने में सिर्फ एक महीना बाकी हो। इसलिए सबसे राय मशविरा करके तय किया गया कि जेसीबी मशीने लगा दी जाएं। इसके लिए करीब 70 लाख रुपए चाहिए। सरकार की कोई योजना नहीं है कि इस तरह का काम मशीनों से कराकर गांव मके तालाबों को सुधार लिया जाए। अफसरों ने साफ हाथ खड़े कर दिए हैं। यहां पर काम आ रहा है गांव की सरपंच का एमबीए की पढ़ाई करना। साथ पड़े लड़के लड़कियां जो अब बड़ी कंपनियों में काम कर रहे हैं, गांव के तालाब की खुदाई के लिए चन्दा इकट्ठा कर रहे हैं।
ग्राम सभा का एक और फायदा हुआ है ज़मीन से अतिक्रमण हटाना। तीन महीने में ही गांव के लोगों ने बातचीत के ज़रिए तालाब की ज़मीन पर बन गए बाड़े हटवा दिए हैं। एक महिला पंच ने गोचर ज़मीन पर एक धार्मिक चबूतरा बनाना शुरू किया तो उसे भी इन बैठकों में ही समझा दिया गया और अब उसने अपनी जिद छोड़ दी है। एक पंच सदस्य का कहना है कि पहले जो काम होता था वो सरपंच की मन मर्जी से हुआ करता था। वो जहां चाहता था वहीं काम होता था। अब तो जो काम काम हो रहा है वो सब मेंम्बर से और गांव के बुर्जुग लोगों से राय लेकर उनकी राय के मुमाबिक हो रहा है। वे कहते हैं कि 11 पंच पूरे गांव की भावनाओं को थोड़े ही समझ सकते है। हर व्यक्ति की भावनाओं को तो व्यक्तिगत लेंगे तभी पता चलेगा कि गांव क्या चाहता है।
गांव के पंच हों या अन्य प्रभावशाली लोग, गांव की सरपंच छवि राजावत के लिए सबकी प्रगो और राजनीति से निपटने का एक ही तरीका है, गांव में लोगों को इकट्ठा करको फैसला लेना। गांव का विकास उनका सपना है लेकिन वे अपना सपना और ज्ञान लोगो पर थोपना नहीं चाहतीं। पंचायत और उसके कर्मचारी क्या काम करेंगे यह गांव के लोगों की मौजूदगी में तय होता है।
गांव को पंचों को और लोगों को समझाना शायद आसान है लेकिन जब बात पंचायत के अधीन आने वाले सरकारी कर्मचारियों की आती है तो मामला टेढ़ा हो जाता है। पहली ही ग्राम सभा की बैठक में जब सचिव को बैठक के मिनिट्स बनाने के कहा गया तो पहले उसने बाद में बनाने को कहा। लेकिन सबके सामने कहे जाने का असर हुआ, बैठक के मिनिट्स बने। मिनिट्स के नीचे लोगों ने अपने दस्तखत या अंगूठे भी लगा दिए। सचिव ने जानबूझकर मिनिट्स और दस्तखतों के बीच एक लाईन खाली छोड़ दी।
अगले दिन सरपंच ने अचानक देखा कि इस लाईन में गांव के राशन डीलर के पक्ष में एक फैसला लिख दिया गया जबकि उस बैठक में राशन के मुद्दे पर चर्चा भी नहीं हुई थी। इस लाईन को हटवा दिया गया लेकिन अपने इशारों पर सरपंच को चलाते रहे ग्राम सचिव को नई सरपंच का ग्राम सभा कराना अच्छा नहीं लग रहा।
और शायद यही वह जगह है जहां हमारे देश का पंचायती राज का सपना अटक गया है। कहने को पंचायत को हम तीसरे स्तर की सरकार कहते हैं लेकिन इस सरकार के एक भी कर्मचारी पर उसका नियन्त्रण नहीं है। सब के सब राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह हैं। पूरा का पूरा पंचायती राज्य अफसरों के हवाले हैं। इसे अफसरों के चंगुल से निकालकर स्वतन्त्र करना किसी आन्दोलन के बिना सम्भव नहीं है। और ऐसा आन्दोलन किसी राजनीतिक से नहीं निकल सकता। सांसद या विधायक बनकर बनकर देश सुधारने का दम भरने वाले आवेशित युवाओं के बल पर भी यह आन्दोलन नहीं खड़ा हो सकता। इसके लिए ज़रूरत होगी गांव-गांव में ऐसे लोगों की जो अपना अपना गांव राजनीतिक रूप से सुधारने के लिए काम करें।
1 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
देसिल बयना-नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!
Post a Comment