Visit blogadda.com to discover Indian blogs मेरा गाँव मेरी सरकार: झाबुआ: इन गांवों में याचक नहीं दाता रहते हैं

झाबुआ: इन गांवों में याचक नहीं दाता रहते हैं

मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले के 1300 गांवों में लोग अपने दम पर रख रहे हैं समग्र विकास की बुनियाद। यहां विकास का मतलब सिर्फ अपने गांव में सुविधाएं जुटाना नहीं बल्कि तमाम ग्रामों का विकास है।
आई.आई.टी. मुम्बई के छात्रों का एक दल मध्य प्रदेश के झबुआ ज़िले में जल संरक्षण की सफलता का अध्ययन करने गया। आखिरी दिन एक छात्र ने अपनी रिपोर्ट में लिखा -
`जब मैं छोटा था तो मां कहती थी कि अच्छे नंबर से पास होओगे तो विकास होगा। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो समझा कि व्यक्तित्व का विकास होगा तो अपना विकास होगा। आगे चलकर ये भी समझ में आया कि अच्छी नौकरी, अच्छा वेतन, घर आदि हो जाएगा तो विकास हो जाएगा। इस तरह मुझे लगता था कि विकास का मतलब है कि अगर देश में सब लोग इस तरह विकसित हो जाएंगे तो पूरे देश का विकास हो जाएगा। लेकिन यहां एक ग्रामीण ने मुझे विकास के सच्चे मायने समझा दिए हैं।

तालाब के किनारे बैठे उस ग्रामीण से मैंने पूछा कि इन तालाबों के बनने से आपके गांव में हरियाली लौट रही है, आपकी खेती अच्छी होगी, आप तो खुश होगे कि गांव का विकास हो रहा है। ग्रामीण ने जवाब दिया कि अभी हमारा विकास कहां हुआ है। विकास तो तब होगा जब हम अपने पास के गांवों में भी ऐसे तालाब बनवा देंगे।...´
समग्र विकास की यह भावना आई.आई.टी. के छात्रों के लिए नई थी। लेकिन जब लोग किसी कार्यक्रम से जुड़ते हैं तो ऐसे ही जुड़ते हैं। ये गांव झाबुआ ज़िले के उन 1300 गांवों में से एक है जहां लोग एक ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं जिसका सपना गांव में रहने वाला हर शख्स देखता है। एक अन्य गांव से इसकी एक और बानगी देखिए -
`गोपालपुरा नामक एक गांव में बारिश के पानी के संरक्षण के लिए तालाब बनाया जाना है। सारा काम गांववालों की पहल पर होना है अत: सबके श्रमदान से काम चलेगा। लेकिन गांव के कुछ लोगों ने लोगों को भड़का दिया कि 80 रुपए रोज़ मिलेंगे तो काम करना नहीं तो नहीं करना। जो श्रमदान के लिए तैयार थे उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। लेकिन तभी इन लोगों की मदद के लिए आसपास के 16 गांवों के लोग आने लगे और रोज़ाना वहां श्रमदान करने लगे। देखा देखी गोपालपुरा गांव के बाकी लोग भी एक-एक दो-दो की संख्या में जुड़ने लगे और देखते-देखते 10 दिन में पूरा गांव तालाब बनवाने के लिए श्रमदान करने लगा। नतीज़तन 30 दिन में पूरा तालाब बन कर तैयार हो गया।´
ज़िले में 1320 गांव हैं जिसमें 13 लाख जनजातीय लोग रहते हैं। इसमें से 175 गांव ऐसे हैं जहां अब हर महीने गांव के लोग एक साथ बैठते हैं और अपने गांवों की ज़रूरतों पर विचार करते हैं। एक बार ज़रूरत समझ में आने पर तय किया जाता है कि यह ज़रूरत कैसे पूरी होगी। ज़रूरतों में सबसे ज्यादा बल मिला है। पानी को। गांव वालों ने इस अभियान को नाम दिया है- शिवगंगा अभियान। यहां के लोगों ने पानी को रोकने के लिए जो चैक डैम या तालाब बनाए हैं उन्हें ये शिवजटा कहते हैं। यह नाम उन्होंने भागीरथ की कथा से लिया है जिसके मुताबिक गंगा ध्रती पर आएगी तो वह तेज़ी से निकल जाएगी। वह केवल शिव की जटाओं में रोकी जा सकती है। गांव वालों ने इसे परिभाषित किया है कि हर गांव में वर्षां के मौसम में गंगा आती है लेकिन तेज़ी से बह जाती है। उसे रोकने के लिए वे शिवजटाएं यानि चैक डैम व तालाब बनवाते हैं। विकास के लिए पानी की आवश्यकता को परंपरा से जोड़ने का फायदा हुआ है कि लोगों को यह अपने जीवन की बात लगती है।
पिछले साठ साल में शहरी विकास के लिए इन इलाकों का जंगल बड़े पैमाने पर काटा गया। टीकवुड का जंगल खाली कर दिया गया। नतीज़तन ज़मीन के नीचे पानी कम होता गया और खेतीबाड़ी कर सम्रद्ध जीवन जी रहे लोग गरीब होते चले गए। इलाके की ज़मीन की क्षमता साल में मुश्किल से एक फसल देने तक सीमित हो गई। और यहां के लोग शहरों में मजदूरी करने पर मजबूर हो गए।
सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष चौहान, जो आई.आई.टी. से अपनी पढ़ाई पूरी करके इस इलाके में पहुंचे...


शिवगंगा अभियान के प्रणेता हर्ष चौहान से बातचीत

अभियान का विस्तार कितना है?
1320 गांव हैं जिनमें साढ़े बारह लाख लोग रहते हैं। सबके सामने गम्भीर जल संकट और फिर कई तरह की समस्याएं। तो इसका हल बाहर से नहीं हो सकता। अन्दर से ही होगा। वहां का समाज ही अपने बारे में निर्णय करने लगेगा तब इसका हल निकलेगा। और इसीके विचार करते हुए हमने इन गांवों में 18 से 35 वर्ष के युवाओं को आगे लाने का काम किया।

गांवों में जाते हैं तो वहां के लोगों को जोड़ने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं?
विकास का आधार स्वालंबन है और स्वावलंबन का आधार है स्वाभिमान। तो हमने सूत्र बनाया कि लोगों का स्वाभिमान बचाते हुए कैसे आगे बढ़ सकते हैं। हमने ये देखा है कि कोई भी व्यक्ति जब बड़े अच्छे मन से किसी गांव में जाता है और कहता है कि मैं आपके विकास के लिए, मदद के लिए आया हूं, तो उस गांव के 10-12 लोग तुरन्त सामने आते हैं। ये हम सबका अनुभव होता है। और उन दस लोगों के साथ हम काम करना शुरू कर देते हैं। थोड़े ही समय में यह सामने आने लगता है कि ये लोग तो स्वार्थी हैं। और फिर वो अच्छा व्यक्ति निराश होकर जाता है कि ये गांव के लोग सुध्रना नहीं चाहते। पर यहां वास्तव में एक गलती होती है। वो ये कि जब हम उस गांव में गए थे तो उस गांव के 10 स्वार्थी तो हमारे पास आए लेकिन 90 लोग जो स्वाभिमानी थे वे पीछे हट हए क्योंकि हम दाता बन कर गए थे और वो कुछ लेना नहीं चाहते। तो हमने ये प्रयास किया कि उन 90 प्रतिशत लोगों में से लोगों को साथ लिया जाए।

तो इन 90 फीसदी में से भी लोगों को साथ जोड़ने का काम कैसे होता है?
हम कहते हैं कि हम धर्म के लिए आए हैं। और फिर गांव के ऐसे युवकों की जानकारी लेते हैं जो गांव के लिए कुछ-कुछ करते रहते हैं। जैस कोई बीमार पड़ता है तो ज्यादातर कौन लेकर जाता है। तब ऐसे लोगों से मुलाकात कर हम उनसे बात करते हैं कि आपके मन में गांव के लिए पीड़ा है। बातचीत में उनकी समस्या और सीमा के बारे में पता चलता है तो हम उनके सामने उनकी सीमा बढ़ाने में सहयोग का प्रस्ताव रखते हैं। तो इस तरह हर गांव में टीम बनती है और उनका गांव के बारे में चिन्तन शुरू होता है।


प्रशिक्षण में क्या बताते हैं?
गांवों में हमने 18 से 35 वर्ष के लोगों के साथ शुरुआत की थी। हमारे सामने सवाल था कि उनके चिन्तन में अपने गांव के विकास का मुद्दा कैसे आए? शुरुआत में हमने 40 लोगों के साथ बैठक की तो सोचा कि इनसे बात कैसे होगी, इन्हें देश-समाज का कोई एक्पोज़र तो है नहीं। तो हमने शुरुआत की कि अपने गांव के दुख से हम क्या समझते हैं? थोड़ा कुरदने पर प्रत्येक व्यक्ति अपनी हृदय विदारक कहानी के साथ सामने आया। किसी ने पुलिस की बर्बरता की कहानी सुनाई तो किसी ने सरकारी डॉक्टर के अमानवीय व्यवहार की। जब वे मजदूरी करने जाते हैं तो उनके साथ किस तरह अत्याचार के अत्याचार होते हैं। इस तरह कई प्रकार की घटनाएं उन्होंने सुनाईं। तो बात आई कि ऐसे क्यों हो रहा है? तो उन्होंने कहा कि पहले तो ऐसा नहीं था। लेकिन अब धरती सूख रही है तो फसल कम हो रही है और हमें मजदूरी करना पड़ता है। और सारा अत्याचार सहन करना पड़ता है।
तब हमने यह बात रखी कि क्या हम लोग मिलकर जल के लिए कुछ काम नहीं कर सकते? उन्होंने निर्णय लिया। हमने उन्हें प्रशिक्षण दिया और उन युवाओं ने अपने आप को परमार्थी नेतृत्त्व के लिए स्थापित किया। सबने मिलकर तैयारी की। और अब गांवों के लोगों ने करीब 3000 वाटर बाड़ीज़ वहां पर बना ली हैं... जिसमें बारिश के पानी को रोकने का इन्तज़ाम है।

युवाओं का उत्साह बना रहे इसके लिए क्या गतिविधियाँ रहती हैं?
करीब 175 गांवों में आज हर महीने बैठक होती है और इन बैठकों में अपने गांव की ज़रूरतों पर विचार होता है। पड़ोस के गांव के मुद्दों पर बात होती है।

गावों में सामाजिक विभाजन व आपसी गुटबाज़ी से कैसे निपटते हैं?
यह होता था। लेकिन हमने अपने प्रशिक्षण में एक सूत्र जोड़ा, समुद्र मन्थन की कथा का। जिस प्रकार समुद्र मठन के समय देव दानव, ईश्वर, प्रकृति सबने साथ दिया तो उसी तरह अगर हमें अपने गांव से अमृत निकलना है तो अच्छे बोरों सबको साथ लेना पड़ेगा। इससे बदलाव आया। अब ये युवा दूसरों की बुराई नहीं बल्कि सामान्यत: बुरी छवि रखने वाले लोगों के अन्दर भी अच्छाई की बात करते हैं।

कोई विशेष अनुभव?
इन्दौर की सांसद सुमित्रा महाजन एक बार तीन दिन हमारे साथ इलाके के गांवों में गईं। तीन दिन के बाद उन्होंने कहा कि जब भी वे कहीं जातीं है तो बहुत से लोग अपनी-अपनी अपेक्षाएं लेकर आते हैं। कई तरह की मांगें रखते हैं लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि मैं अपने इलाके के कुछ गांवों में गई और लोगों ने कुछ मांगा नहीं। मैं जहां भी गई वहीं लोगों ने अपनी बात बताई। हम ये कर रहे हैं, वो करने वाले हैं लेकिन किसी ने कुछ मांगा नहीं।

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