Visit blogadda.com to discover Indian blogs मेरा गाँव मेरी सरकार: हिवरे बाज़ार गाँव

हिवरे बाज़ार गाँव

गांव का हर घर खुशहाल है। गांव के हर घर गुलाबी रंग में रंगा है। गांव की गलियां हर वक्त इस तरह सज़ी रहती हैं मानो कोई त्यौहार मनाया जा रहा है। गांव के सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों की हालत शहर के जाने माने प्राईवेट स्कूलों से बेहतर है। हालांकि ये खुशनुमा माहौल कोई पुरानी बात भी नहीं है। 1972 में यहां सूखा पड़ा था, इसके बाद लगातार सूखा पड़ा और गांव कभी उठ नहीं पाया। महज़ 20 साल पहले तक यानि 1989 तक यहां के लोग उन तमाम कष्टों से जूझ रहे थे जिनमें हम आज देश के किसी भी अन्य गांव के लोगों को जूझते देख सकते हैं। लड़ाई झगड़ा, जाति पांत का बंटवारा, गुटबाज़ी, हर तरह की बीमारी यहां थी। गांव में इतनी शराब बनती थी कि पड़ोसी गांवों में भी सप्लाई होती थी। गांव के युवा मोहन चतर का कहना है कि जब हम गांव से बाहर जाते थे लोग हमें हिवरे बाज़ार का कहकर चिढ़ाते थे। गांव में शायद ही कोई सप्ताह बीतता होगा जब फौजदारी के लिए पुलिस न बुलानी पड़ती हो। गांव में 90 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। आज यहां महज़ तीन परिवार बीपीएल हैं। गांव की प्रति व्यक्ति औसत आय 28 हज़ार रुपए सालाना हो चुकी है जो 1989 में महज़ 842 रुपए थी। आज गांव की ज़मीन के नीचे 10-15 फुट पर अच्छा पानी उपलब्ध् है जबकि 1989 में 50 फुट पर भी मुश्किल से पानी मिलता था।

२० साल में ही गांव के इतना खुशहाल बन जाने की कहानी स्वराज की कहानी है। बीस साल पहले गांव के 25-30 युवाओ ने फैसला लिया गांव के इन हालात को बदला जाए। उन्होंने मिलकर पहले गांव के नेताओं को समझाने की कोशिश की, लेकिन जब वे नहीं माने तो गांव के ही एक युवा पोपटराव पंवार को एक साल के लिए वहां का सरपंच बनवा दिया। पवार ने इन युवाओं के साथ मिलकर सबसे पहले गांववालों को अपने साथ जोड़ने का काम शुरू किया। गांव में ग्राम पंचायत को एक भी फैसला लेना होता तो तमाम गांववालों को बैठक के लिए बुलाया जाता। नतीज़ा यह हुआ कि गांववाले पंचायत के काम को अपना काम समझने लगे। बस फिर क्या था। स्कूल के लिए ज़मीन चाहिए थी तो कुछ परिवारों ने अपनी ज़मीन दे दी। स्कूल के लिए कमरा बनवाना था तो सरपंच सहित पूरे गांव के लोगों ने श्रमदान किया। दूसरी तरफ इन युवाओं ने स्कूल में अध्यापको की कमी भी पूरी कर दी। जिसके पास जितना समय था स्कूल में पढ़ाने के लिए देने लगा। इन प्रयासों को देख गांववालों की समझ में आ गया कि उनके गांव का भविष्य अब ठीक हो सकता है। तब गांववालों ने मिलकर निर्णय लिया कि पोपटराव पंवार को ही सरपंच बनाए रखा जाए। तब से लेकर आज तक 20 साल से पोपटराव पंवार ही गांव की प्रधनी संभालते आ रहे हैं। उनका दावा है कि आज उनके गांव में जो कुछ दिख रहा है वह सब गांववालों ने मिलकर तय किया है, बनाया है। गत 20 सालों में पंचायत ने सिर्फ गांववालों के फैसलों को अमल में लाने का काम किया है।गांव में अंदर जाने के लिए स्वागत द्वार बना है। स्वागत द्वार से अंदर आते ही नज़र आती है ग्राम संसद यानि गांव की चौपाल। इसकी इमारत देखने में संसद जैसी बनाई गई है। यहां बैठकर पूरा गांव फैसले लेता है कि किस योजना के पैसे से क्या काम कहां कराया जाए। स्कूल, आंगनवाड़ी, राशन दुकान, अस्पताल के सभी कर्मचारी हर महीने होने वाली ग्राम सभा की बैठक में लोगों के सवालों के जवाब देने के लिए उपस्थित रहते हैं। पोपटराव पंवार मानते हैं कि ग्राम सभा में फैसले लेने से उनका अपना विज़न भी बढ़ा है और काम आसान हुआ है।
पिछले बीस साल में ग्राम सभा में कई ऐसे फैसले लिए गए हैं जो अगर दिल्ली या मुंबई में बैठी सरकारों ने लिए होते या खुद सरपंच और उनके सहयोगियों ने लिए होते तो गांववालों से उन पर अमल करवाना संभव ही नहीं था। इसके लिए ज़रूरत पड़ती है तो महीने में चार-चार ग्राम सभाओं की बैठकें भी बुलाई जाती हैं। उदाहरण के लिए -

गांव में पानी की कमी थी, सूखा पड़ता था इसलिए गांव वालों ने मिलकर जगह चैकडैम बनाए, पानी का स्तर थोड़ा बढ़ा तो फैसला लिया गया कि किसान गन्ना, केला आदि नहीं उगाएंगे क्योंकि ये फसलें पानी अधिक सोखती हैं। आज भी गांव में गन्ने और केले की खेती नहीं होती। गांव में लोगों के बकरी पालने पर प्रतिबंध् लगाया गया क्योंकि बकरियां जंगल में पौधें को चर जाती है। गांव के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिए मज्जिद बना कर देने का फैसला ग्राम सभा में लिया गया। गांव के जिन लोगों ने ग्राम सभा की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था उनसे ज़मीन छुड़वाना आसान काम नहीं था लेकिन ग्राम सभाओं में इस मुद्दे को बिना किसी मुकदमे के सुलझा लिया गया और पूरी ज़मीन से अवैध् कब्ज़े हटवा कर उसमें से कुछ गांव के गरीब परिवारों को दे दी गई। ऐसे न जाने कितने फैसले हैं जिनके दम पर आज गांव खुशहाल है। दुनिया भर से लोग आज इस गांव को देखने आते हैं। इतने पुरस्कार मिल चुके हैं कि गिनना मुश्किल है। लेकिन बाकी है तो ये पुरस्कार के देश का हर गांव, हर शहर हिवरे बाज़ार की तर्ज पर अपने लोगों के हिसाब से चले। लोग तय करें और सरकारें उस पर अमल करें। तो न भ्रष्टाचार बचेगा और न भाई-भतीज़ावाद। तभी होगा गाँधी के सपनों का सच्चा स्वराज।

(हिवरे बाज़ार गांव पर 25 मिनट की एक फिल्म बनी है, इसकी प्रति मंगाने के लिए आप 09968450971 नंबर पर संपर्क कर सकते हैं। यह फिल्म गांव में जब सब लोग साथ मिलकर देखते हैं तो उनके अंदर अपने गांव को भी बेहतर बनाने की इच्छा जागृत होती है और लोग मिलकर इस दिशा में काम करने का फैसला भी लेते हैं)

0 comments:

Post a Comment