आज देश में लगभग हर आदमी के पास सरकारी दफ्रतरों के चक्कर काटने के किस्से मौजूद हैं। आदमी पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, सरकार से एक जायज़ प्रमाण पत्र लेने तक में उसके पसीने छूट जाते हैं। आम आदमी चाहे राशन कार्यालय, पीडब्लूडी कार्यालय, बिजली विभाग, जल आपूर्ति विभाग, परिवहन कार्यालय, नगर निगम, पुलिस, सरकारी अस्पताल या पेंशन या सामाजिक सुरक्षा विभाग या किसी भी सरकारी दफ्रतर में जाएं उसे हमेशा भ्रष्टाचार, शोषण और कर्मचारियों की अक्षमता से जूझना पड़ता है।
सरकार की बहुत सी सेवाएं ठप पड़ी हैं। टूटी सड़कें, कूड़े के ढेर, सीवरों से बाहर बहता पानी, काम से नदारद अध्यापक और डॉक्टर और सरकारी दफ्रतरों में दलालों का बोलबाला इसका सबूत है।
स्वराज व्यवस्था में ग्राम सभा या मोहल्ला सभा के पास सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ सम्मन जारी करने, उनसे सवाल करने और उनके अच्छे-बुरे कामों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने का अधिकारी होना चाहिए। इससे एक नागरिक ग्राम या मोहल्ला सभा की बैठक में अपनी शिकायत रख सकने में सक्षम होगा। बैठक में इन अधिकारियों को सम्मन जारी कर बुलाया जाएगा और उन्हें अपना काम करने को कहा जाएगा।
मध्य प्रदेश के पंचायती राज कानून के मुताबिक 8 अलग-अलग सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति ग्राम सभा की बैठक में अनिवार्य है। ये 8 कर्मचारी हैं – पटवारी, ग्राम सेवक, शिक्षक, राशन दुकानदार, नर्स, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आशा (प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) और नाकेदार (वन कर्मचारी, जहां जंगल है) हैं। प्रत्येक जन सेवक को सारे रिकॉर्ड और अपने कामों का लेखा-जोखा ग्राम सभा में प्रस्तुत करना होता है।
2002 में मध्य प्रदेश सरकार ने ग्राम सभा को ठीक से काम न करने वाले कर्मचारियों का वेतन रोक सकने का अधिकार भी दे दिया। जहां-जहां भी ग्राम सभा ने इस अधिकार का प्रयोग किया वहां व्यापक असर दिखने लगा। एक गांव में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अपने काम पर आती ही नहीं थी। ग्राम सभा की एक बैठक बुलाई गई और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को बुलाकर उससे पूछा गया कि पिछले दो महीने में वो कितने दिन अपने काम पर आई है? पूरे गांव के सामने वो झूठ नहीं बोल पाई। उसे मानना पड़ा कि पिछले दो महीने में उसने सिर्फ दो दिन ही काम किया है। लोगों ने उससे मिड-डे मील के पैसे के बारे में पूछा। उसे ये स्वीकार करना पड़ा कि मिड-डे मील फंड का उपयोग उसने खुद के लिए कर लिया है। यह सुन कर कुछ लोगों ने उसे नौकरी से हटाने की मांग की। लेकिन कुछ बुजुर्ग लोगों ने बीच-बचाव करते हुए कहा कि नौकरी से हटाना कोई समाधान नहीं है, कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे यह महिला अपना काम ठीक से करने लगे। अंत में ये निर्णय हुआ कि उक्त महिला को एक महीने का समय दिया जाए। अगर इस बीच उसमें सुधर हो जाता है तभी उसे आगे काम करने दिया जाएगा। और एक महीने के भीतर सचमुच उस आंगनवाड़ी कार्यकर्ता में सुधर दिखने लगा।
यदि ग्राम सभा को उपरोक्त अधिकार नहीं मिले होते तो स्थिति क्या होती, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। तब लोग सिपर्फ बड़े अधिकारियों के पास शिकायत करते और वो अधिकारी या तो उस शिकायत को कूड़े के डब्बे में फेंक देता या ज्यादा से ज्यादा एक विभागीय जांच का आदेश दे देता जिससे कुछ होने वाला नहीं है।
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