-बह्म देव शर्मा
7 मार्च 2010 को उत्तर प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक में संबोधन… इस बैठक में आए समाजसेवी गांव गांव में सन्देश पहुंच रहे हैं कि गांवों का विकास ग्राम सभाओं से ही होगा। और आने वाले पंचायत चुनाव में ऐसे व्यक्ति को ही प्रधान बनाया जाए जो ग्राम सभा कराए। इन कार्यकर्ताओं के साथ संबोधन और बातचीत के दौरान गाँधीवादी विचारक एवं सामजसेवी श्री बी.डी. शर्मा जी ने वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों को ग्राम स्वराज के नज़रिए से स्पष्ट किया। उनके वक्तव्य के अंश यहां प्रस्तुत हैं –
1857 में आज़ादी के पहले आन्दोलन को अंग्रेजों ने दबा तो दिया लेकिन बहुत मशक्कत के बाद दबा पाए। तब उन्होंने एक कमीशन बनाया, सर ए. ओ. ह्यूम की अध्यक्षता में। यह समझने के लिए कि ये सब हुआ कैसे? इतना बड़ा संघर्ष हुआ कैसे और इसकी हमें कानों कान कोई खबर नहीं लगी। आयोग दो-तीन साल जगह जगह घूमा। बाहरी लोगों को हमारी जिन्दगी की सामान्य बाते बड़ी मुश्किल से समझ आती है। जब अंग्रेजों ने जांच की तो उन्हें कुछ बाते अजीब लगीं। उन्होंने कहा कि यहां पर गांव एक “समाज´´ है. इस देश में गांव “समाज´´ है, जो अपनी व्यवस्था स्वयं करता है। वह किसी पर निर्भर नहीं है। यदि कोई अकस्मात बात होती है या खतरा आता है तो गांव समाज उसका प्रतिकार करता है। ए.ओ. ह्यूम ने भी ये कहा है कि “ये समाज ऐसा है कि जब कोई संकट आता है एक हो जाता है और उसके बाद फिर अपने अपने काम में लग जाता है, तो जब तक कि इस देश में गांव समाज को खत्म नहीं किया जाता तब तक आपका साम्राज्य स्थायी नहीं रह सकता। इस प्रकार का विद्रोह आपको झेलना ही पड़ेगा।´´ ये उनका फैसला था। इसका नतीज़ा यह हुआ कि 1860 के बाद जितने भी कानून बने उनमें से किसी भी कानून में गांव समाज के लिए कोई स्थान नहीं दिया। ऐसा कोई कानून नही जिसमें गांव समाज की कोई भूमिका हो। आपस में झगड़ा हो जाए तो अदालत, न्याय पंचायत आदि बना दिए गए. आप आपस में बात करके झगड़ा सुलझा सकते हैं पर (कानूनन) सुलझा नहीं सकते. इसके लिए पुलिस है, अदालत है। गांव में जितने भी काम हैं राज्य को दे दिये गए। आपका खेत आपका है या नहीं वो गांव नहीं तय करेगा बल्कि पटवारी और अफसरों के पास मौजूद कागज़ों से तय होगा। अब जिसका खेत दादा के ज़माने से चला आ रहा है, पर कहीं उसके विपक्षी ने जालसाजी कर उसकी जमीन के कागज़ातों पर अपना नाम लिखा लिया तो कानूनन अब वो खेत उसका हुआ। अगर आप अदालत में जाएं तो सबसे पहले वकील यही बोलेगा।
गांव तो जैसे पहले अंग्रेजो के समय में गुलाम था आज भी वैसे ही गुलाम है। सरकार ने जो हुकुम दे दिया वो ग्राम सभा का काम है और जो हुकुम नहीं दिया वो ग्राम सभा का काम नहीं। ये कानूनी व्यवस्था अंग्रेजों ने इसलिए बनाई थी कि उनका साम्राज्य कभी टूटे नहीं। इसके बावजूद आज़ादी की लड़ाई में आप देखेंगे कि सबसे ज्यादा योगदान गाँव समाज का ही है। संयुक्त परिवार थे, गांव समाज में जिसके दिमाग में भी आया वो चल दिया, घर के बाकी लोगों ने मिलकर उसके परिवार की ज़िम्मेदरई निभाई। समाज टूट नहीं पाया अंग्रेजों के बावजूद और आज़ादी आई।
खैर, जब संविधान बन रहा था तब गाँधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि इस संविधान में गांव और किसान के बारे में क्या लिखा है? राजेन्द्र जी ने बताया इसमें तो दोनों में से किसी के बारे में नहीं लिखा है। तब गाँधी जी ने पूछा कि ये किसका संविधान है? जिसमें समाज के लिए, किसान के लिए कोई स्थान नहीं तो वो संविधान भारत का कैसे हो सकता है? उसके बाद गाँधी जी ने “हरिजन´´ में एक लेख लिखा। उसके बाद कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया कि इसके लिये स्थान बनाया जाए। तब जाकर संविधान में अनुच्छेद 40 जिसमें पंचायती राज की बात है, उसको उसको रखा गया।
बाद में संविधान सभा में उस पर बहस हुई। अन्त में जाकर ये बात तय हुई कि हर गांव जो है वो गणराज्य के रूप में कार्य करेगा। जब गाँधी जी से पूछा गया कि आपके सपने का भारत क्या है? तो उन्होंने बताया कि “60 लाख गांव गणराज्य राज्य का महासंघ´´. तो अनुच्छेद 40 जो रखा गया तो उसमें कई बुनियादी बातें फिर से आई। एक बात ये आई कि इसमें हम गांव गणराज्य कि बाते कर रहे हैं पर इसमें तो केन्द्रीकृत व्यवस्था है. तो ये केन्द्रीकृत व्यवस्था ऊपर रहेगी या गांव गणराज्य? क्या इसमें ग्राम गणराज्य व्यवस्था ऊपर रह सकेगी? तो इसमें राजेन्द्र प्रसाद जी ने गलती स्वीकार की। उन्होंने कहा था कि “संविधान बनाए ही नहीं जाते संविधान बनते भी है अपने आप… जैसे जैसे हम चलेंगे धीरे-धीरे ये केन्द्रीकृत व्यवस्था कमजोर हो जायेगी और व्यवस्था अकेन्द्रीकृत होती रहेगी और हम सही आदर्श लोकतान्त्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ेंगे… और गांव को अगर हम केन्द्र में लाते हुए संविधान बनाएंगे तो संविधान बनाने में बहुत देर हो जायेगी।´´
संविधान सभा में ये स्वीकार हुआ कि अनुच्छेद 40 में गांव गणराज्य जैसी व्यवस्था होगी लेकिन वो नहीं हुआ। उसमें एक शब्द की वजह से तमाम चक्कर पड़ गया। अनुच्छेद 40 अगर आप देखेंगे कि राज्य ऐसी पंचायतों का गठन करेगा और उनको ऐसी शक्तियां प्रदान करेगा जो उनको स्वायत्त रूप में काम करने के लिए जरूरी है। पंचायत शब्द जब गांव में इस्तेमाल होता था तो उसका मतलब होता था गांव के सभी लोग। कभी हमारे गांवों में पंचायत शब्द गांव की चुनी हुई सभा के रूप में नहीं हुआ। लेकिन अब संविधान में व्यवस्था आ गई और (फिर कानून भी बन गया) और पंचायत का मतलब चुने हुए लोगों की पंचायत हो गया और ग्राम सभा उसमें पीछे छूट गई।
इसके बाद कई जगहों पर ग्राम सभाओं का उल्लेख आया। सबसे पहले बलवन्त राय मेहता कमेटी ने स्पष्ट रूप से लिखा कि “ग्राम सभाओं को दायित्व दिये जा सकते हैं जिम्मेदारी नहीं।´´ इसी तरह अशोक मेहता कमेटी बनी जिसमें उस समय के काफी दिग्गज लोग शामिल थे। मैं उस समय में भारत सरकार में गृह मन्त्रालय में था। मैं उस कमेटी में गया और मैनें अपने आदिवासी क्षेत्रा के अनुभव के आधार पर कहा कि ग्राम सभा की केन्द्रीय भूमिका होनी चाहिए क्योंकि ये आदिवासी क्षेत्र में सामान्य बात है कि चुनी हुई चीज कुछ नहीं होती सब लोग इकट्ठा होते है। और अपनी व्यवस्था स्वयं करते है, उसमें किसी के दखल की जरूरत नहीं पड़ती हैं, कुछ गलतियां है जिसको सुध्रना भी चाहिए. जैसे अनुच्छेद 40 मे लिखा है कि “राज्य पंचायतों को बनाएगा और उसको अधिकार देगा´´। दुर्भाग्य से अशोक मेहता कमेटी ने भी ये बात नहीं मानी और ये लिखा कि “ग्राम सभाओं को कुछ कर्तव्य दिये जा सकते है अधिकार नहीं।´´ इसके बाद सिद्वराज ढड्ढा जी ने विरोध् करते हुए नोट लिखा कि “अगर ये व्यवस्था ग्राम सभा के दायरे में नहीं होती है तो ये लोकतन्त्र के लिए सबसे घातक होगा।´´
इसके बाद राजीव गाँधी के समय में संविधान संशोधन का प्रस्ताव आया तो उसमें भी ग्राम सभा की बात नहीं थी। बाद में ग्राम सभाएं आई। अनुच्छेद 273 में लिखा गया कि “ग्राम सभाओं को राज्य का विधनमण्डल वह अधिकार देगा जिससे कि वो स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में काम कर सके´´। यहां पर भी वही बात है कि विधानमण्डल ही ताकत देगा कि ग्राम सभाओं को ताकत दी जाए या नहीं। हमारी जो व्यवस्था है वो इस भ्रम है कि वो ग्राम सभाओं को ताकत देगा। ग्राम सभाएं सिर्फ सिफारिश कर सकती हैं और उस पर काम हो या न हो ये ग्राम पंचायत तय करेंगी।
ग्राम सभाओं को कोई नहीं चाहता है। इस पर दिल्ली युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैनन जैन ने एक कविता लिख डाली कि “मुझे कोई नहीं चाहता, मुख्यमंत्री नहीं चाहता, मंत्री नहीं चाहता, कमिश्नर नहीं चाहता और तो और मेरा खुद सरपंच नहीं चाहता´´। ग्राम सभाओं को इसलिए कोई नहीं चाहता कि उसमें झूठ नहीं चल सकता। गांव में एक न एक ऐसा बावला जरूर होगा जो कि पिटता जाएगा और कहता जाएगा कि मैं तो सच बोलूंगा। उसको चाहे कितने जूते लगाओ पर वो तो सच ही बोलेगा। इसीलिए ग्राम सभाओं को नहीं चाहता।
हमने कुछ गांवों में लोगों से सवाल पूछा कि यदि दिल्ली खत्म हो जाए, चण्डीगढ़ खत्म हो जाये तो क्या गांव चलेगा? जवाब मिला कि चलेगा। हमने पूछा कि चलेगा कि दौड़ेगा। तो लोगों ने माना कि दौड़ेगा। गांव समाज राज्य की स्थापना से पहले से था। ये मानना कि राज्यों के बिना ग्राम सभाएं नहीं चलेगी ये सब लोकतान्त्रिक व्यवस्था के खिलाफ है। ग्राम पंचायत राज्य द्वारा बनाई गई है, मान लीजिए पंचायत राज कानून खतम हो जाता है तो ग्राम पंचायत कहां रहेगी. ग्राम सभाएं तो रहेंगी ही। लोकतन्त्र की पहली सीढ़ी ग्राम सभाएं ही है। इसीलिए हमारा नारा है-:
“लोकसभा न विधान सभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा´´
“लोकसभा न विधान सभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा´´
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